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क्या दुनियाँ में विचार व चिंतन के लिए किसी विशेष प्रकार के समुदाय , समाज या वर्ग से सम्बंधित होना ज़रूरी है ? वर्गीय चिंतन की परम्परा के कारण उन विचारधाराओं के प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती रही है जो स्वतंत्र रूप से कुछ नया सोचते रहे हैं .
जब भी कोई क्रांतिकारी या बदलाव की धारा आरम्भ हुई तो तुंरत ही बाज़ार की शक्तियों ने उसे निर्मूल करना शुरू कर दिया .इन बाज़ार शक्तियों के बेहद ताकतवर होने के कारण राज्य सत्ताएं भी उनकी ही भाषा बोलती हैं और उनके साथ मिलकर बदलाव की धारा को मोड़ देती हैं.
समाज के दबे -कुचले और शताब्दियों से अधिकारों से महरूम लोगों का चिंतन वास्तव में अनुभव पर आधारित होता है जिसमें मूल रूप से जिजीविषा का पुट मौजूद होता है , जो यह दिखाता है कि सोच -चिंतन की धारा यहीं से प्रष्फुटित होती है जबकि उनके दर्पण के रूप में शिक्षित व बुद्धिजीवी वर्ग सामने आता है.चूंकि जो वास्तव में सोच रहा होता है वह उस विचार को अभिव्यक्त नहीं कर पाता इसी कारण से उनकी सोच (ज़मीन के लोगों की) उनकी लगती ही नहीं और वह सोच उनके व्याख्याकारों की हो जाती है.
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